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28-Jul-2025 02:02 PM
By First Bihar
Bihar News: बिहार में चल रही स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) प्रक्रिया को लेकर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में अहम सुनवाई हुई। अदालत ने फिलहाल SIR पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है और कहा कि यह प्रक्रिया संवैधानिक दायित्व के तहत आती है और लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ी है, इसलिए इस पर विस्तृत विचार आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह भी कहा कि SIR के दस्तावेजों में आधार कार्ड और वोटर आईडी को पहचान के वैकल्पिक दस्तावेज के रूप में मानने पर विचार किया जाए।
इस पर चुनाव आयोग ने अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि राशन कार्ड को दस्तावेज़ के रूप में मान्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह बड़े पैमाने पर जारी हुआ है और इसमें फर्जीवाड़े की संभावना अधिक है। कोर्ट ने मामले की अगली विस्तृत सुनवाई की तिथि 28 जुलाई निर्धारित की है।
इस बीच, 27 जुलाई को चुनाव आयोग द्वारा SIR के पहले चरण के आंकड़े जारी किए गए, जिसमें बताया गया कि बिहार में वोटर लिस्ट में अब 7.24 करोड़ मतदाता हैं, जबकि पहले यह संख्या 7.89 करोड़ थी। यानी कुल 65 लाख मतदाताओं के नाम सूची से हटाए गए हैं। आयोग के अनुसार, इनमें से 22 लाख मृतक, 36 लाख स्थानांतरित, और 7 लाख वे लोग हैं जो अब किसी और क्षेत्र में स्थायी रूप से बस चुके हैं।
इससे पहले 24 जुलाई को भी सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए SIR को जारी रखने की अनुमति दी थी। अदालत ने इसे चुनाव आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी बताया था। हालांकि, जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने SIR की टाइमिंग और प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठाए थे। अदालत ने सुझाव दिया था कि मतदाता पहचान के लिए वोटर आईडी, आधार और अन्य सरकारी दस्तावेजों को शामिल किया जाए।
SIR के खिलाफ राजद सांसद मनोज झा, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा सहित कुल 11 याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की हैं। इनकी ओर से वरिष्ठ वकीलों कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी और गोपाल शंकरनारायणन ने बहस की, जबकि चुनाव आयोग का पक्ष पूर्व अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल, राकेश द्विवेदी और मनिंदर सिंह ने रखा।
सुनवाई के दौरान नागरिकता को साबित करने की जिम्मेदारी किसकी है, इस पर गंभीर बहस हुई। कपिल सिब्बल ने दलील दी कि नागरिकता साबित करने का बोझ मतदाता पर नहीं डाला जा सकता। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 10 और 11 के अनुसार, 1950 के बाद जन्मे लोग भारतीय नागरिक हैं और चुनाव आयोग को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। वहीं, आयोग के वकील राकेश द्विवेदी ने तर्क दिया कि आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं हो सकता, और आयोग को सही दस्तावेज़ों के आधार पर ही निर्णय लेने का अधिकार है।
न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा कि जब जाति प्रमाणपत्र को आधार पर स्वीकार किया जा सकता है, तो आधार कार्ड को सूची से क्यों हटाया गया? जवाब में आयोग ने कहा कि जाति प्रमाणपत्र केवल आधार पर आधारित नहीं होता। इसके अलावा अदालत ने कहा कि यदि मतदाता सूची को अंतिम रूप देने से पहले व्यापक जन-सुनवाई नहीं हुई, तो बहुत से पात्र मतदाता वोटिंग से वंचित हो सकते हैं, जिससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचेगी।
बिहार सरकार द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार, बहुत ही कम लोगों के पास ऐसे दस्तावेज हैं जो नागरिकता साबित कर सकें। सर्वे के अनुसार, केवल 2.5% लोगों के पास पासपोर्ट, 14.71% के पास 10वीं का सर्टिफिकेट है, जबकि अधिकांश के पास जन्म प्रमाणपत्र, आधार कार्ड और मनरेगा जॉब कार्ड जैसे दस्तावेज ही हैं, जिन्हें आयोग ने वैध नहीं माना है।
सुनवाई के दौरान मतदाता पहचान पत्र (वोटर आईडी) को लेकर भी विवाद खड़ा हुआ। याचिकाकर्ताओं के वकील ने इसे आयोग द्वारा जारी किया गया बताते हुए कहा कि इसे अब आयोग खुद ही अस्वीकार कर रहा है। न्यायमूर्ति बागची ने कहा कि “यह मुद्दा केवल तकनीकी नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकारों का है।”
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि मामला तीन प्रमुख बिंदुओं पर केंद्रित है:
क्या चुनाव आयोग को विशेष गहन संशोधन (SIR) करने का अधिकार है?
इसकी प्रक्रिया कितनी पारदर्शी और न्यायोचित है?
क्या यह कार्य निर्धारित समयसीमा (नवंबर) तक पूरा हो सकेगा?